धोखाधड़ी से प्राप्त आदेशों पर विलय का सिद्धांत लागू नहीं: सुप्रीम कोर्ट ने विलय नियम के अपवादों की रूपरेखा प्रस्तुत की
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि हाईकोर्ट का कोई निर्णय, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा, धोखाधड़ी से प्राप्त किया गया तो पीड़ित पक्ष सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की पुनर्विचार की मांग करने के बजाय हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करके उसे चुनौती दे सकता है। न्यायालय ने कहा कि विलय का सिद्धांत (जहा निचली अदालत का निर्णय हाईकोर्ट के आदेश के साथ विलीन हो जाता है) उस स्थिति पर लागू नहीं होगा, जहां विवादित निर्णय/आदेश धोखाधड़ी से प्राप्त किया गया हो।
जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस उज्जल भुयान की बेंच ने उस मामले की सुनवाई की, जिसमें एक पक्ष (रेड्डी) ने मामले के गुण-दोष से सीधे संबंधित महत्वपूर्ण तथ्यों को छिपाकर हाईकोर्ट का आदेश (2021) अपने पक्ष में प्राप्त कर लिया। बाद में हाईकोर्ट के निर्णय को 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने भी अनुमोदित कर दिया। कार्यवाही से पहले पक्षकार नहीं बनाए गए अपीलकर्ता-विष्णु ने सुप्रीम कोर्ट के 2022 के आदेश को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि न्यायालय द्वारा पारित आदेश धोखाधड़ी से दूषित है।
अब यह प्रश्न उठा कि क्या अपीलकर्ता हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में नियमित अपील दायर कर सकता है, या सुप्रीम कोर्ट के आदेश की पुनर्विचार हेतु पुनर्विचार याचिका दायर कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रेड्डी की ओर से यह तर्क दिया गया कि अपीलकर्ता द्वारा दायर दीवानी अपील स्वीकार्य नहीं होगी, क्योंकि विलय के सिद्धांत के लागू होने पर हाईकोर्ट का आदेश सुप्रीम कोर्ट के आदेश में विलीन हो जाता है, जिससे सुप्रीम कोर्ट का आदेश एक प्रवर्तनीय आदेश बन जाता है, जिसके विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकती।
इस तर्क को खारिज करते हुए जस्टिस दत्ता द्वारा लिखित निर्णय में कहा गया कि चूंकि हाईकोर्ट का निर्णय धोखाधड़ी से प्रभावित था और गुण-दोष के आधार पर नहीं दिया गया, इसलिए 2022 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसकी पुष्टि के परिणामस्वरूप वास्तविक विलय नहीं हुआ। परिणामस्वरूप, हाईकोर्ट का आदेश नियमित दीवानी अपील के माध्यम से चुनौती के लिए खुला रहा। इसके अलावा, न्यायालय ने निम्नलिखित पांच परिदृश्य निर्धारित किए, जहां विलय का सिद्धांत लागू नहीं होगा
(i) न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत अत्यंत दुर्लभ या विशेष परिस्थिति(यों) के कारण उसकी अपील का अधिकार समाप्त नहीं किया जाना चाहिए।
(ii) उसकी अपील से कोई ऐसा मौलिक सार्वजनिक महत्व का मुद्दा उठता है, जिसे अपीलकर्ता द्वारा उठाया नहीं जा सकता था, जिसने मुकदमे के पिछले दौर में इस न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार में इसका दरवाजा खटखटाया था। यह भी कि व्यापक जनहित में ऐसे मुद्दे का इस न्यायालय द्वारा समाधान आवश्यक है।
(iii) चूंकि न्यायालय के किसी भी कार्य से किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए, इसलिए इस न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप करने से इनकार करने पर एक्टस क्यूरी नेमिनम ग्रेवबिट (किसी भी पक्ष को न्यायालय की गलती या किसी अन्य वादी द्वारा की गई धोखाधड़ी के कारण नुकसान नहीं होना चाहिए) के सिद्धांत का उल्लंघन होगा।
(iv) पूर्व अपीलीय निर्णय इस न्यायालय के साथ धोखाधड़ी के कारण अमान्य हो गया, क्योंकि इस मामले में, जिस पक्ष के पक्ष में निर्णय दिया गया, उसने धोखाधड़ी की है।
(v) यदि हस्तक्षेप, जो अन्यथा विधि द्वारा उचित पाया जाता है, केवल विलय के सिद्धांत के आधार पर अस्वीकार कर दिया जाता है तो इसके अपूरणीय परिणामों के कारण जनहित अत्यधिक संकट में पड़ जाएगा। इस प्रकार, न्यायालय ने हाईकोर्ट के आदेश और रेड्डी वीराना (2022) में अपने पूर्व निर्णय रद्द कर दिया और सभी प्रभावित पक्षों (विष्णु और सुधाकर) को पक्षकार बनाते हुए मामले को हाईकोर्ट के समक्ष नए सिरे से निर्णय के लिए बहाल कर दिया।
Cause Title: VISHNU VARDHAN @ VISHNU PRADHAN VS. THE STATE OF UTTAR PRADESH & ORS. (& Connected Cases)
साभार