बिना टिकट व्यक्तियों को ट्रेन में चढ़ने से रोकने में रेलवे की विफलता सहभागी लापरवाही: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने माना कि बिना टिकट और अनधिकृत व्यक्तियों को ट्रेन में चढ़ने से रोकने में रेलवे की विफलता सहभागी लापरवाही है, इसलिए रेलवे को भीड़भाड़ के कारण मरने वाले वास्तविक यात्री के आश्रितों को मुआवजा देने का दायित्व है। जस्टिस हिमांशु जोशी की पीठ ने कहा; रेलवे अधिनियम, 1989 की धारा 123(सी) और 124ए के तहत रेलवे यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और आकस्मिक मृत्यु सहित किसी भी अप्रिय घटना के लिए क्षतिपूर्ति करने के लिए बाध्य है, जहां लापरवाही या वैधानिक कर्तव्य का उल्लंघन सिद्ध होता है। बिना टिकट यात्रियों के ट्रेन में चढ़ने पर निगरानी और नियंत्रण रखने में रेलवे अधिकारियों की विफलता, उनकी देखभाल और सतर्कता के कर्तव्य में एक गंभीर चूक है, जिससे वैध यात्रियों का जीवन और सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। टिकट वाली यात्रा की पवित्रता को प्रवेश नियंत्रणों के सख्त प्रवर्तन और नियमित निगरानी द्वारा बनाए रखा जाना चाहिए। इस संबंध में किसी भी चूक को क्षमा नहीं किया जा सकता, खासकर जब इससे निर्दोष लोगों की जान जाती हो। इसलिए यह माना जाता है कि ऐसी विफलता रेलवे प्रशासन की ओर से सहभागी लापरवाही है।
मृतक गुरमीत सिंह वैध रेलवे पास के साथ भिलाई पावर हाउस स्टेशन से दुर्ग जा रहे थे। अन्य यात्रियों द्वारा अत्यधिक जल्दबाजी और धक्का-मुक्की के कारण दुर्भाग्यवश वह चलती ट्रेन से गिर गए और चोटों से उनकी मृत्यु हो गई। हालांकि, रेलवे दावा न्यायाधिकरण ने 26 अप्रैल, 2011 को परिवार का मुआवज़े का दावा यह कहते हुए खारिज कर दिया कि मृतक वास्तविक यात्री नहीं था, क्योंकि उसके पास से कोई वैध टिकट नहीं मिला था। अपीलकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि न्यायाधिकरण ने सह-यात्रियों के बयानों और मृतक के रेलवे पास से जुड़े वैध पहचान पत्र की अनदेखी करके गलती की।
दूसरी ओर, रेलवे के वकील ने तर्क दिया कि वैध टिकट का न होना झूठा मुआवज़ा पाने के लिए जालसाजी की संभावना का संकेत देता है। इसलिए यह मामला खारिज किए जाने योग्य है। अदालत ने कहा कि न्यायाधिकरण का निर्णय मुख्य रूप से वैध यात्रा टिकट प्रस्तुत न करने पर आधारित था। रीना देवी के मामले का हवाला देते हुए अदालत ने फिर से पुष्टि की कि केवल टिकट का न होना वास्तविक यात्री होने के दावे को खारिज नहीं करता। अदालत ने आगे कहा कि मृतक के पास एक वैध सीज़न टिकट था। उसने एक संबंधित पहचान पत्र भी प्रस्तुत किया, जो दुर्घटना की तारीख को वैध था। इस प्रकार, यह साबित करने का दायित्व रेलवे पर आ गया कि मृतक वास्तविक यात्री नहीं था।
इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने बिना टिकट यात्रियों को ट्रेन में चढ़ने से रोकने में रेलवे की विफलता पर भी प्रकाश डाला। कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि रेलवे का यह कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि केवल वैध टिकट धारक ही ट्रेन में चढ़ें और अनधिकृत यात्रियों को चढ़ने से रोके। कोर्ट ने यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए रेलवे अधिकारियों की व्यापक ज़िम्मेदारी पर भी ज़ोर दिया। कोर्ट ने कहा कि यदि रेलवे यह सुनिश्चित करने में विफल रहा कि केवल वैध टिकट धारक ही ट्रेन में चढ़ें तो किसी व्यक्ति के घायल होने या उसकी मृत्यु होने पर रेलवे मुआवज़ा देने के लिए उत्तरदायी होगा। हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह जांच करना आवश्यक होगा कि मृतक या घायल व्यक्ति बिना अनुमति के या दुर्भावनापूर्ण इरादे से तो यात्रा नहीं कर रहा था।
कोर्ट ने ज़ोर देकर कहा, "रेलवे एक सार्वजनिक उपयोगिता सेवा और राज्य का एक अंग होने के नाते अपने नेटवर्क पर यात्रा करने वाले यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का वैधानिक और संवैधानिक कर्तव्य है। यह कर्तव्य न केवल परिचालन दक्षता तक बल्कि अनधिकृत और बिना टिकट यात्रा को रोकने सहित नियामक उपायों के प्रभावी कार्यान्वयन तक भी फैला हुआ है।" अदालत ने पाया कि मृतक की मृत्यु का कारण बनी यह दुखद घटना, अत्यधिक भीड़भाड़ का प्रत्यक्ष परिणाम थी, जो संभवतः अनधिकृत यात्रियों द्वारा की गई होगी, जिन्हें बिना जांच के डिब्बे में चढ़ने और उसमें रहने दिया गया। इस प्रकार, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में रेलवे अधिकारियों की विफलता, प्रशासन की ओर से सहभागी लापरवाही के बराबर है, जिससे मृतक का परिवार मुआवजे का हकदार है। इसके मद्देनजर, अदालत ने न्यायाधिकरण का आदेश रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि परिवार को आठ सप्ताह के भीतर ₹8 लाख का मुआवजा दिया जाए।
Case Title: Vijay Singh Gour v Union [MA-3232-2011]
साभार