वकील द्वारा दी गई मौखिक सहमति पर पारित आदेश की इस आधार पर पुनर्विचार नहीं किया जा सकता कि लिखित सहमति नहीं थी: सुप्रीम कोर्ट

Jan 21, 2025 - 14:11
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वकील द्वारा दी गई मौखिक सहमति पर पारित आदेश की इस आधार पर पुनर्विचार नहीं किया जा सकता कि लिखित सहमति नहीं थी: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि भारत में सभी संवैधानिक अदालतें पक्षकारों की ओर से वकीलों द्वारा दिए गए मौखिक बयानों को स्वीकार करती हैं। किसी आदेश की केवल इस आधार पर पुनर्विचार नहीं की जा सकती कि लिखित में सहमति नहीं दी गई थी।

जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस उज्ज्वल भुयान की खंडपीठ ने कलकत्ता हाईकोर्ट का आदेश खारिज कर दिया, जिसमें हाईकोर्ट द्वारा पारित पहले के आदेश के लिए केवल लिखित सहमति की कमी के आधार पर सेवा मामले मे पुनर्विचार को अनुमति दी गई थी।

कोर्ट ने कहा,

“हमारे देश में सभी संवैधानिक अदालतें पक्षकारों की ओर से उनके संबंधित वकीलों द्वारा दिए गए मौखिक बयानों को स्वीकार करती हैं। विवादित आदेश इस आधार पर आगे बढ़ता है कि लिखित में कोई सहमति नहीं दी गई। चूंकि प्रतिवादियों की ओर से पेश होने वाले वकील की मौखिक सहमति स्पष्ट रूप से दर्ज की गई, इसलिए 26 अप्रैल, 2024 के आदेश की इस आधार पर समीक्षा नहीं की जा सकती कि लिखित सहमति नहीं थी।”

यह मामला जिला प्राथमिक विद्यालय परिषद (DPSC) मालदा के लिए 2009 की भर्ती प्रक्रिया में कथित अनियमितताओं के संबंध में कलकत्ता हाईकोर्ट द्वारा जारी 26 अप्रैल, 2024 के आदेश की समीक्षा से संबंधित है। यह आदेश प्रतिवादियों के वकील की मौखिक सहमति से पारित किया गया, जिसमें DPSC हावड़ा भी शामिल था। 26 अप्रैल के आदेश के प्रासंगिक पैराग्राफ में कहा गया कि सभी पक्षों की सहमति से जिन उम्मीदवारों ने 2009 की भर्ती प्रक्रिया में भाग लिया और 25 अप्रैल, 2024 तक रिट याचिका दायर की थी वे मौजूदा या भविष्य की रिक्तियों के खिलाफ नियुक्तियों के हकदार होंगे।

इसके बाद DPSC मालदा द्वारा पुनर्विचार याचिका दायर की गई, जिसमें 26 अप्रैल के आदेश को इस आधार पर चुनौती दी गई कि प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील द्वारा कोई लिखित सहमति नहीं दी गई। कलकत्ता हाईकोर्ट ने 25 सितंबर, 2024 के अपने आदेश में समीक्षा याचिका को अनुमति दी और 26 अप्रैल के आदेश को वापस ले लिया। हाईकोर्ट ने कहा कि चूंकि आदेश सहमति पर आधारित था जो लिखित रूप में प्रदान नहीं की गई, इसलिए 26 अप्रैल का आदेश टिक नहीं सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कलकत्ता हाईकोर्ट का 25 सितंबर का आदेश इस आधार पर आधारित था कि 26 अप्रैल के आदेश के लिए लिखित सहमति नहीं दी गई।

सुनवाई के दौरान जस्टिस ओक ने टिप्पणी की,

"हम आपको खतरे के बारे में बताएंगे। सभी संवैधानिक न्यायालय बार में दिए गए मौखिक बयानों को स्वीकार करते हैं। यदि इस आधार पर कि लिखित में सहमति नहीं है, हम आदेशों को वापस लेना शुरू कर देते हैं तो कोई भी बार में दिए गए बयानों को स्वीकार नहीं करेगा। प्रत्येक बयान के लिए हम वकील का हलफनामा लेंगे।"

न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि 26 अप्रैल के आदेश में DPSC सहित प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील की मौखिक सहमति स्पष्ट रूप से दर्ज की गई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लिखित सहमति की कमी के आधार पर समीक्षा याचिका को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए थी।

सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ता हाईकोर्ट के 25 सितंबर का आदेश रद्द करते हुए 26 अप्रैल, 2024 के मूल आदेश को बहाल कर दिया। हालांकि इसने स्पष्ट किया कि 26 अप्रैल के आदेश से व्यथित कोई भी पक्ष कानून के अनुसार इसे चुनौती दे सकता है।

केस टाइटल- रिम्पा साहा बनाम जिला प्राथमिक विद्यालय परिषद मालदा

साभार