प्रतिकूल कब्जे का दावा अपीलीय चरण में पहली बार नहीं उठाया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

Aug 12, 2025 - 09:48
Aug 12, 2025 - 11:03
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प्रतिकूल कब्जे का दावा अपीलीय चरण में पहली बार नहीं उठाया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने यह देखते हुए कि किसी न्यायालय का निर्णय पक्षकारों की दलीलों से परे किसी आधार पर आधारित नहीं हो सकता, मुकदमा खारिज करने का फैसला बरकरार रखा, जिसमें वादी ने, जिसने मूल रूप से प्रतिकूल कब्जे का दावा नहीं किया था, केवल अपीलीय चरण में ही दावा उठाया था। न्यायालय ने कहा, "यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि दलीलों के संबंध में कानून का मूल नियम यह है कि कोई पक्ष केवल उसी आधार पर सफल हो सकता है, जो उसने आरोप लगाया है और साबित किया है, अन्यथा, सेकंडम एलेगेटा एट प्रोबेटा के सिद्धांत के अनुसार, किसी पक्ष को तब तक सफल होने की अनुमति नहीं है, जब तक उसने वह मामला स्थापित नहीं किया है जिसे वह प्रमाणित करना चाहता है।"

अदालत ने आगे कहा, "जब तक कि प्रतिकूल कब्जे की दलील को दलीलों में स्पष्ट रूप से नहीं उठाया गया हो, मुद्दा नहीं बनाया गया हो। फिर अनेक बिंदुओं पर ठोस और ठोस साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किए गए हों और वादी द्वारा प्रस्तुत मामले का खंडन करने का अवसर प्रतिवादी द्वारा नहीं लिया गया हो, तब तक प्रतिकूल कब्जे की दलील को अपील में पहली बार किसी अनजान प्रतिवादी पर अचानक थोपने की अनुमति नहीं दी जा सकती।" जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ ने उस मामले की सुनवाई की, जिसमें याचिकाकर्ताओं-वादी ने प्रतिवादियों के पक्ष में रजिस्टर्ड सेल डीड रद्द करने की मांग करते हुए एक वाद दायर किया था। वाद खारिज कर दिया गया। हालांकि प्रथम अपीलीय न्यायालय ने वादी के पक्ष में उनके प्रतिकूल कब्जे की दलील को स्वीकार करते हुए वाद का फैसला सुनाया, जो मूल रूप से दलीलों का हिस्सा नहीं था।

हाईकोर्ट ने प्रथम अपीलीय न्यायालय के निर्णय को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि वादीगण ने वादपत्र या लिखित बयान में प्रतिकूल कब्जे के दावे के संबंध में कोई आधारभूत दलील नहीं दी थी और प्रथम अपीलीय न्यायालय के लिए प्रतिकूल कब्जे का मुद्दा तय करने का कोई कारण नहीं था। हाईकोर्ट का निर्णय बरकरार रखते हुए न्यायालय ने कहा कि चूंकि प्रतिकूल कब्जे का मुद्दा मुकदमे का मूल आधार था, लेकिन शुरू में इसका दावा नहीं किया गया। इसलिए वादी इसे अपीलीय स्तर पर प्रस्तुत नहीं कर सकता और न ही प्रथम अपीलीय न्यायालय प्रतिकूल कब्जे पर कोई प्रश्न तय कर सकता था, जब यह मूल दलीलों में अनुपस्थित था।

न्यायालय ने कहा, "कानून की यह स्थापित स्थिति है कि प्रतिकूल कब्जे के दावे की नींव दलीलों में रखी जानी चाहिए। फिर एक मुद्दा तैयार किया जाना चाहिए और उस पर विचार किया जाना चाहिए। यदि दलीलों या विचारण के चरण में मुद्दों में उचित रूप से कोई दलील नहीं उठाई गई तो उसे सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की धारा 96 के तहत प्रथम अपील के चरण में पहली बार उठाने की अनुमति नहीं दी जाएगी।" अदालत ने आगे कहा, "प्रतिकूल कब्जे की दलील हमेशा एक कानूनी दलील नहीं होती। दरअसल, यह हमेशा तथ्यों पर आधारित होती है, जिन्हें स्थापित और सिद्ध किया जाना चाहिए। प्रतिकूल कब्जे का दावा करने वाले व्यक्ति को यह दर्शाना होगा कि किस तारीख को उसका कब्ज़ा हुआ, उसके कब्जे की प्रकृति क्या थी, क्या उसके कब्जे का तथ्य कानूनी दावेदारों को ज्ञात था। उसका कब्ज़ा कितने समय तक जारी रहा। उसे यह भी दर्शाना होगा कि क्या उसका कब्ज़ा खुला और अविचलित था। ये सभी तथ्यात्मक प्रश्न हैं और जब तक इनका स्थापित और सिद्ध नहीं किया जाता, इनसे प्रतिकूल कब्जे की दलील का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसलिए सामान्य मामलों में कोई अपीलीय न्यायालय अपने समक्ष प्रतिकूल कब्जे की दलील को उठाने की अनुमति नहीं देगा।"

इस सिद्धांत की पुष्टि करते हुए कि प्रतिकूल कब्जे द्वारा स्वामित्व एक तथ्य-प्रधान दावा है, जिसके लिए उचित दलीलों, मुद्दों और प्रमाणों की आवश्यकता होती है, अदालत ने कहा कि प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा वादी की प्रतिकूल कब्जे की दलील के आधार पर मुकदमे का फैसला सुनाना अनुचित था। अदालत ने कहा, "इस मामले में यदि वादपत्र में प्रतिकूल कब्जे का तर्क दिया गया होता और प्रतिवादियों द्वारा उस तर्क पर विचार किया गया होता। फिर उचित मुद्दे तय किए गए होते तो वादी पर अपने प्रतिकूल दावे के समर्थन में साक्ष्य प्रस्तुत करने का भारी दायित्व होता और प्रतिवादियों को कानून द्वारा खंडन का एक उपयुक्त अवसर दिया गया होता। इस मामले में यह अकल्पनीय है कि प्रतिकूल कब्जे का प्रश्न उचित तर्क, मुद्दे या प्रमाण के अभाव में इस अभिलेख पर न्यायनिर्णयन का विषय बन सकता है।" तदनुसार, याचिका को गुण-दोष से रहित होने के कारण खारिज कर दिया गया।

Cause Title: KISHUNDEO ROUT & ORS. VERSUS GOVIND RAO & ORS.

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