नीतीश के 'एक्स्ट्रा' रिजर्वेशन पर हाई कोर्ट का डंडा, इन राज्यों में अब भी 50% से ज्यादा है कोटा, पूरी कहानी
भारत में जाति आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत है. सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में ही अधिकतम कोटा तय कर दिया था लेकिन उसे सख्ती से फॉलो नहीं किया गया.
भारत में आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है जिसकी आंच पर खूब राजनीतिक रोटियां सेंकी गई हैं. जातियों के आधार पर आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत है. यह सीमा सुप्रीम कोर्ट ने तय कर रखी है. इसके बावजूद, कई राज्य ऐसे हैं जहां कुल आरक्षण कोटा 50% से ज्यादा है. नवंबर 2023 में बिहार भी उन राज्यों में शामिल हो गया जहां 50% से ज्यादा आरक्षण है. नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली महागठबंधन सरकार ने बिहार में कोटा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दिया था. 10% कोटा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) का भी जुड़ा. यानी प्रभावी रूप से, बिहार में 75 प्रतिशत आरक्षण लागू हुआ. अब पटना हाई कोर्ट ने नीतीश सरकार के फैसले को रद्द कर दिया है.
हाई कोर्ट से नीतीश सरकार को लगा झटका
पटना HC ने गुरुवार को कहा कि बिहार सरकार का फैसला 'समानता के अधिकार पर अतिक्रमण कर रहा है.' हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के विनोद चंद्रन और जस्टिस हरीश कुमार की बेंच ने फैसला सुनाया. नीतीश ने पिछले साल बिहार में जाति आधारित सर्वे के आंकड़े जारी करने के बाद कोटा बढ़ाया था. HC का फैसला नीतीश और उनकी पार्टी JDU के लिए बड़ा झटका है. JDU अब एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) में है और देश भर में जाति जनगणना की वकालत करती है.
भारत में आरक्षण की 'सुप्रीम' सीमा
भारत में जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था है. विधानसभाओं, उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जातियों (SCs), अनुसूचित जनजातियों (STs) और अन्य पिछड़े वर्गों (OBCs) के लिए आरक्षण कुल सीटों के 50% से अधिक नहीं हो सकता. यह सीमा 1992 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से लागू है. वह बात अलग है कि कुछ राज्यों, केंद्र सरकार और खुद सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कुछ सालों में कभी-कभी इसका उल्लंघन किया है.
1992 में, सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की बेंच ने 6-3 के बहुमत से ओबीसी कोटा को बरकरार रखा था. उसी फैसले में SC ने कहा था कि कुल कोटा कभी भी 50% से ज्यादा नहीं होना चाहिए. अदालत ने यह भी कहा कि 'क्रीमीलेयर' यानी सामाजिक और आर्थिक रूप से आगे बढ़ चुके OBC वर्ग के सदस्यों को कोटा नहीं मिलेगा. क्रीमीलेयर का आधार आय को बनाया गया. दूसरे शब्दों में, एक तय सीमा से ज्यादा आय वाले OBC परिवार को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता.
सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में कहा था कि 'बेहद असाधारण परिस्थितियों में' ही 50% आरक्षण के नियम को मोड़ा जा सकता है.
किन राज्यों में 50% से ज्यादा कोटा?
सुप्रीम कोर्ट की ओर से सीमा तय किए जाने के बावजूद, कई राज्यों में 50% से ज्यादा आरक्षण लागू है. इनमें सबसे बड़ा राज्य है तमिलनाडु. वहां 1990 के बाद से ही आरक्षण कोटा 69% रहा है. 1992 में SC के फैसला सुनाने के बाद, तमिलनाडु विधानसभा ने 1993 में कानून पारित किया ताकि उसका कोटा सुरक्षित रहे. तत्कालीन केंद्र सरकार से भी समीकरण सही बैठे और पारित कानून को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई. उस समय की राज्य सरकार ने केंद्र को इस बात के लिए भी मना लिया कि वह संविधान में संशोधन कर विधानसभा से पारित कानून को नौंवी अनुसूची में रखे जिससे यह न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर हो जाए.
2007 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उसे नौंवी अनुसूची में किसी भी बदलाव की समीक्षा का अधिकार है. यह समीक्षा केवल इस आधार पर होगी कि बदलाव संविधान के मूल ढांचे पर खरा उतरता है या नहीं. तमिलनाडु की आरक्षण नीति को दी गई चुनौती सुप्रीम कोर्ट के सामने 2012 से लंबित है.
तमिलनाडु के अलावा, पूर्वोत्तर के अधिकतर राज्यों - अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और सिक्किम - में भी 50% से अधिक आरक्षण है. संविधान ने इन राज्यों को अपने स्वदेशी समुदायों के हित में शासन के लिए अधिक स्वायत्तता दे रखी है.
बाकी राज्यों ने भी की कोशिश
बिहार तो ताजा उदाहरण है, कई अन्य राज्यों ने तमिलनाडु की तर्ज पर आरक्षण की सीमा बढ़ाने की कोशिश की. सबसे चर्चित है मराठा आरक्षण का मामला. 2018 में महाराष्ट्र विधानसभा ने कानून बनाकर मराठा समुदाय को 16% आरक्षण दिया. इससे राज्य में कुल आरक्षण 68% तक पहुंच गया. 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे 1992 वाले फैसले में तय की गई 50% वाली सीमा का उल्लंघन करार देते हुए रद्द कर दिया.
उससे पहले, 2017 में सरकारी नौकरियों में OBC के लिए रिजर्व सीटें बढ़ाने की ओडिशा सरकार की कोशिश को हाई कोर्ट ने नाकाम कर दिया था. फिर 2018 में वहां के स्थानीय निकाय चुनाव में भी यही दांव चला गया. हाई कोर्ट ने फिर SC वाले आधार पर ऐसी कोशिश को खारिज कर दिया.
2022 में छत्तीसगढ़ सरकार ने 2011 में विधानसभा से पारित एक कानून को रद्द किया. राज्य सरकार ने आरक्षण को बढ़ाकर 58% कर दिया था. छत्तीसगढ़ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. SC ने हाई कोर्ट के फैसले पर अंतरिम रोक लगा दी लेकिन मामले पर अंतिम फैसला अभी तक नहीं हुआ है.
केंद्र सरकार का कदम
आरक्षण से जुड़ा एक अहम फैसला 2019 में केंद्र सरकार ने लिया. सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में आर्थिक रूप से कमजोर (EWS) वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण लागू किया गया. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो पांच जजों की बेंच ने 3-2 से कोटा को बरकरार रखा. बहुमत वाले तीन फैसलों में से एक में 50% सीमा पर टिप्पणी की गई थी. उसमें कहा गया कि 50% की सीमा लचीली है और यह केवल अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए आरक्षण के संदर्भ में है. जिन दो जजों ने अलग फैसला दिया, उनका कहना था कि 50% वाले नियम को तोड़ने से और आरक्षण का रास्ता खुलेगा जो 'समान अवसर के कानून' को निगल जाएगा.
जाति आधारित जनगणना की मांग
बिहार में नीतीश सरकार ने सभी जातियों का सर्वे कराया था. उसमें पता चला कि राज्य की जनसंख्या में ओबीसी और अत्यंत पिछड़ा वर्ग की हिस्सेदारी 63% है. उसके बाद अतिरिक्त आरक्षण का कानून लाया गया. जेडीयू के साथ तब सरकार में रहे कांग्रेस और आरजेडी भी इसके पक्ष में थे. किसी दल ने सीधे इस कदम का विरोध नहीं किया क्योंकि राजनीतिक जमीन खिसकने का डर था. फिर राष्ट्रीय स्तर पर जाति आधारित जनगणना की मांग जोर पकड़ने लगी.
कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों ने मिलकर INDIA गठबंधन बनाया. शुरू में नीतीश की पार्टी इसका हिस्सा थी लेकिन बाद में NDA में शामिल हो गई. INDIA ने जनता से वादा किया कि उनकी सरकार बनी तो देशभर में जाति जनगणना कराई जाएगी. विपक्ष के प्रमुख नेता राहुल गांधी ने कहा कि अगर सत्ता में आए तो 50% सीमा को खत्म करने वाला कानून लाएंगे. एक नारा दिया गया, 'जितनी आबादी, उतना हक'.
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