CBI जांच के लिए राज्य की सहमति न होने की याचिका पर FIR दर्ज होने के तुरंत बाद विचार किया जाना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

Oct 14, 2025 - 11:46
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CBI जांच के लिए राज्य की सहमति न होने की याचिका पर FIR दर्ज होने के तुरंत बाद विचार किया जाना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 की धारा 6 के तहत CBI द्वारा राज्य की सहमति न लेने के संबंध में आपत्तियां जल्द से जल्द आमतौर पर FIR दर्ज होने के तुरंत बाद उठाई जानी चाहिए। इसने स्पष्ट किया कि एक बार जांच पूरी हो जाने आरोप पत्र दाखिल हो जाने और मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान ले लिए जाने के बाद ऐसी आपत्तियों का इस्तेमाल कार्यवाही को अमान्य करने के लिए देर से नहीं किया जा सकता, सिवाय इसके कि जहां संज्ञान लेने से पहले ही रद्द करने की याचिका लंबित हो।

सुप्रीम कोर्ट अदालत ने कहा, "हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 की धारा 6 के तहत सहमति के अभाव का मामला FIR दर्ज होने के तुरंत बाद उठाया जाना चाहिए। एक बार जांच पूरी हो जाने आरोप पत्र दायर हो जाने और सक्षम कोर्ट द्वारा संज्ञान ले लिए जाने के बाद आरोप पत्र पर संज्ञान लेने वाले आदेश की वैधता को कम करने के लिए ऐसी कोई दलील नहीं दी जा सकती, सिवाय इसके कि इससे न्याय का गंभीर हनन होता हो; या जहां FIR रद्द करने की कार्यवाही शुरू हो गई हो और रद्द करने की कार्यवाही लंबित रहने के दौरान आरोप पत्र दायर कर दिया गया हो। ऐसे मामले में पीड़ित व्यक्ति के पास यह तर्क देने का कुछ औचित्य हो सकता है कि रद्द करने की कार्यवाही लंबित रहने के दौरान आरोप पत्र दायर करने से उसके अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।"

जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर पीठ का आदेश रद्द कर दिया, जिसमें प्रतिवादी नंबर 1 और 3 के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 420 सहपठित 120-बी और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(2) सहपठित 13(1)(डी) के तहत दर्ज आपराधिक मामला रद्द कर दिया गया। हाईकोर्ट ने प्रतिवादियों के विरुद्ध अपराध का ट्रायल कोर्ट द्वारा संज्ञान लेने के बाद भी प्रतिवादियों की याचिका स्वीकार की। हाईकोर्ट ने कहा कि DSPE Act की धारा 6 के तहत राज्य की सहमति का अभाव है और कोई आरोप नहीं लगाया गया, जिससे प्रतिवादी प्रथम दृष्टया अपराधों के दोषी प्रतीत होते हैं।

हाईकोर्ट के दृष्टिकोण को तर्कहीन बताते हुए कोर्ट ने कहा कि यदि ऐसी स्थिति होती कि निरस्तीकरण की कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान आरोप पत्र दाखिल किया गया होता तो अभियुक्त यह दलील देता कि निरस्तीकरण की कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान आरोप पत्र दाखिल करने से उसके अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। वह आरोप पत्र दाखिल होने के बाद भी सहमति न होने का तर्क दे सकता है। यह देखते हुए कि वर्तमान मामले में ऐसी कोई स्थिति नहीं थी, न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी की निरस्तीकरण याचिका को स्वीकार करके हाईकोर्ट ने गलती की है।

कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने तथ्यात्मक विवादों का समय से पहले ही निपटारा किया था, जिन्हें साक्ष्यों के माध्यम से ट्रायल कोर्ट को जांचने के लिए छोड़ देना चाहिए था। कोर्ट ने कहा, "आरोपों के गुण-दोष पर हाईकोर्ट द्वारा दिए गए निष्कर्षों को देखते हुए हमें ऐसा लगता है कि हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की भूमिका निभाते हुए अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया। कुछ विवादास्पद मुद्दे हैं, जिन्हें ट्रायल कोर्ट के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए था।" तदनुसार, आपराधिक मामले को ट्रायल कोर्ट के समक्ष पुनः स्थापित कर दिया गया तथा प्रतिवादी को निर्देश दिया गया कि वह 28.10.2025 को ट्रायल कोर्ट के समक्ष उपस्थित हो तथा ट्रायल कोर्ट की संतुष्टि के लिए जमानत बांड प्रस्तुत करे।

Cause Title: CENTRAL BUREAU OF INVESTIGATION Versus M/S NARAYAN NIRYAT INDIA PVT. LTD & ORS.

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