कैसे संयुक्त राष्ट्र तक पहुंचा कश्मीर मुद्दा? क्या थी पंडित नेहरू की भूमिका, पूरी कहानी
आजादी और विभाजन के बाद जम्मू कश्मीर के शासक महाराजा हरि सिंह के निर्णय, पाकिस्तानी कबाइलियों का कश्मीर पर हमला, कश्मीर का भारत में विलय और भारतीय सैनिकों से हारकर कबाइली हमलावरों के वापस भागने जैसी घटनाओं से हम सब वाकिफ हैं. यहां हम हम कश्मीर मुद्दे के संयुक्त राष्ट्र तक पहुंचने से जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों को जानने की कोशिश करते हैं.
संसद के शीतकालीन सत्र के तीसरे दिन केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर से जुड़े दो बिल जम्मू-कश्मीर आरक्षण संशोधन विधेयक - 2023 और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन संशोधन विधेयक- 2023 पर जवाब देते हुए कश्मीर की समस्याओं के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का नाम लिया. पंडित नेहरू की गलतियों का जिक्र सुनकर कांग्रेस के नेता भड़क गए और कुछ नेता नाराज होकर संसद से वॉकआउट कर गए. अमित शाह ने कहा, 'पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) की समस्या पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की वजह से हुई. पूरा कश्मीर हाथ आए बिना सीजफायर कर लिया था, वरना वह कश्मीर का हिस्सा होता. अमित शाह ने इसके अलावा देश के आंतरिक कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने और आर्टिकल 370 के तहत कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने को भी ऐतिहासिक नेहरूवियन बलंडर करार दिया.
कश्मीर मुद्दे के संयुक्त राष्ट्र तक पहुंचने से जुड़े ऐतिहासिक तथ्य
लोकसभा में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि लोग कहते थे कि अगर कश्मीर में आर्टिकल 370 हटा तो खून की नदियां बह जाएंगी. अरे खून की नदियां छोड़ो, अब किसी में कंकड़ तक चलाने की हिम्मत नहीं है. अमित शाह के बयानों के बाद कश्मीर मसले के संयुक्त राष्ट्र में ले जाने का मुद्दा सतह पर आ गया है. भारत के बंटवारे के बाद से ही पाकिस्तान कश्मीर पर अपनी गिद्ध जैसी नजर जमाए हुए है. इसके चलते युद्ध, छद्म युद्ध और आतंकवाद के जरिए वह खून खराबे की कोशिश करता रहता है. विभाजन के बाद जम्मू कश्मीर के शासक महाराजा हरि सिंह के निर्णय, पाकिस्तानी कबाइलियों का कश्मीर पर हमला और हरि सिंह का भारत में विलय और भारतीय सैनिकों से हारकर कबाइली हमलावरों के वापस भागने जैसी घटनाओं से हम सब वाकिफ हैं, लेकिन हम कश्मीर मुद्दे के संयुक्त राष्ट्र तक पहुंचने से जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों को जानने की कोशिश करते हैं. आइए, जानते हैं कि इस ऐतिहासिक मामले का सच क्या है? आखिर देश के आंतरिक मसले को पंडित नेहरू संयुक्त राष्ट्र में क्यों ले गए और कश्मीर को लेकर उनकी क्या सोच थी? साथ ही भारत और पाकिस्तान के बीच तत्कालीन परिस्थिति क्या थी?
क्या है जम्मू कश्मीर के बनने और भारत में विलय का इतिहास
पहले एंग्लो-सिख युद्ध के बाद अमृतसर की संधि के तहत अंग्रेजों ने मार्च 1846 में कश्मीर को 75 लाख नानकशाही रुपये में जम्मू के डोगरा जागीरदार गुलाब सिंह को बेच दिया था. इसके बाद जम्मू और कश्मीर दोनों मिलने से जम्मू-कश्मीर रियासत अस्तित्व में आई थी. महाराजा गुलाब सिंह के वंशज महाराजा हरि सिंह ने 1947 में भारत या पश्चिमी पाकिस्तान में मिलने के बजाय स्वतंत्र रहकर 'पूरब का स्विट्जरलैंड' की तरह जम्मू कश्मीर के विकास की योजना बनाई थी. आजादी से पहले जून 1947 में वायसराय लुईस माउंटबेटन ने श्रीनगर में हरि सिंह के प्रधानमंत्री को भारत या पाकिस्तान में शामिल होने की सलाह दी, लेकिन प्रधानमंत्री ने राज्य के स्वतंत्र रहने की बात कही. महाराजा के बीमार होने की वजह से दोनों की मुलाकात नहीं हो पाई. चाहता है. उन्होंने राजा से मिलने की भी मांग की, लेकिन अंतिम क्षण में उन्हें सूचित किया गया कि हरि सिंह अस्वस्थ हैं.
कश्मीर पर कब्जे की पाकिस्तानी नापाक मंशा, साजिश और धोखा
ब्रिटिश लेखिका विक्टोरिया स्कोफील्ड की किताब ‘कश्मीर इन कॉन्फ्लिक्ट’ के मुताबिक बाउंड्री कमीशन के चलते महाराजा हरि सिंह के भारत में कश्मीर का विलय करवाने का व्यवहारिक मौका था, लेकिन उन्होंने 15 अगस्त, 1947 के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों के साथ ‘स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट’ का प्रस्ताव रखा. इसके मुताबिक जम्मू-कश्मीर रियासत में बिजनेस, ट्रैवल और कम्युनिकेशन सर्विस ब्रिटिश शासन के अधीन रहता. पाकिस्तान ने इस पर दस्तखत भी कर दिए थे. हालांकि एक महीने बाद ही पाकिस्तान की ओर से विलय का दबाब बनाने के लिए जम्मू कश्मीर की गाड़ियों को रोका जाने लगा. 27 सितंबर, 1947 को पंडित नेहरू ने सरदार वल्लभ भाई पटेल को लिखा कि जम्मू-कश्मीर में स्थिति बिगड़ती जा रही है. पंडित नेहरू का मानना था कि पाकिस्तान की साजिश कश्मीर में घुसपैठ करने की है और सर्दियों में बर्फबारी के कारण कश्मीर के रास्ते बंद होने पर पाकिस्तान बड़ी कार्रवाई करेगा. उनका अंदेशा सही निकला और एक महीने से पहले 22 अक्टूबर को पाकिस्तानी घुसपैठिए आ गए. भारत ने सबूत के तौर पर पाकिस्तानी घुसपैठियों के ट्रकों और मॉडर्न हथियारों का हवाला दिया. फिर भी पाकिस्तान कबाइली को लेकर झूठ दोहराते रहे. उनका कहना था कि भारत में मुसलमानों के खिलाफ हो रहे 'अत्याचारों का बदला लेने' के लिए पठान और कबाइली कार्रवाई कर रहे थे.
जम्मू कश्मीर के विलय के बाद बचाने घाटी में उतरी भारतीय सेना
हरि सिंह की सेना जम्मू कश्मीर को बचाने में सक्षम नहीं हो पा रही थी. घुसपैठियों ने मुजफ्फराबाद पर कब्जा कर लिया और उरी में हरि सिंह की सेना को हरा दिया. ब्रिटिश इतिहासकार एलेस्टेयर लैम्ब के मुताबिक, “… आक्रमणकारियों ने 24 अक्टूबर को औपचारिक रूप से महाराजा के शासन से मुक्ति और कश्मीर राज्य की स्वतंत्रता की घोषणा की… और महुता तक पहुंच गए.” महुता से बारामुला की ओर बढ़ते हमलावरों ने स्थानीय लोगों के साथ जमकर हिंसा की. तब महाराजा हरि सिंह ने सैन्य मदद के लिए भारत सरकार से संपर्क किया. एक दिन बाद, 25 अक्टूबर को शीर्ष राजनयिक वीपी मेनन ने श्रीनगर के लिए उड़ान भरी और हरि सिंह को सुरक्षा के लिए जम्मू जाने की सलाह दी. 26 अक्टूबर को मेनन वापस दिल्ली आ गए. रक्षा समिति की एक बैठक हुई, जहां गवर्नर-जनरल माउंटबेटन ने कहा कि हरि सिंह के शामिल होने के बाद ही भारत को सैन्य हस्तक्षेप करना चाहिए. मेनन वापस गए और 'इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन' यानी विलय पत्र साथ लेकर लौटे. एजी नूरानी की किताब 'द कश्मीर डिस्प्यूट' में माउंटबेटन को लिखे महाराजा हरि सिंह के विलय पत्र का पूरा मजमून है. इसके बाद भारतीय सैनिकों ने पहुंचकर कबाइली हमलावरों को कश्मीर घाटी से खदेड़कर बाहर किया.
माउंटबेटन ने पंडित नेहरू को दी थी सलाह, क्लेमेंट एटली ने चेतावनी
माउंटबेटन और हरि सिंह के पत्र व्यवहार और पंडित नेहरू और लियाकत अली खान के टेलीग्राम में कश्मीर के विलय को लेकर उचित समय पर जनमत संग्रह करवाने का जिक्र भी सामने आया. इस बीच भारतीय सैनिकों ने द्रास, कारगिल और पुंछ की पहाड़ियों पर कब्जा करके सफलता हासिल कर ली थी. लड़ाई थमी नहीं थी और इसके पंजाब तक फैलने की आशंका भी थी. तब माउंटबेटन ने कश्मीर मामले में संयुक्त राष्ट्र को शामिल करने की सलाह दी. नवंबर में माउंटबेटन ने लाहौर में जिन्ना से मुलाकात की थी. भारत और पाकिस्तान बातचीत के जरिए किसी समाधान पर पहुंच पाएंगे माउंटबेटन को इसकी कोई उम्मीद थी. ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने पाकिस्तान में सेना भेजने के लिए पंडित नेहरू को पत्र लिखकर चेतावनी दी. इसके बाद 1 जनवरी, 1948 को भारत ने कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने का फैसला किया. कई इतिहासकार साफ तौर पर इसे अंग्रेजों के धोखे के रूप में देखते हैं.
संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान ने कश्मीर मसले को दिया मजहबी रंग
संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मामले में भारत ने दलील दी कि कानूनी रूप से भारत में शामिल जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों पर पाकिस्तानी घुसपैठिए जबरन कब्जा कर रहे थे. उन्हें छोड़ने के लिए कहा जाना चाहिए. वहीं, पाकिस्तान ने इस मुद्दे को मजहबी रंग देते हुए विभाजन के बाद पैदा समस्या का हिस्सा बताया. पाकिस्तान ने कहा कि घुसपैठिए अपने “पीड़ित” मुस्लिम भाइयों की मदद करने के लिए कश्मीर में घुसे थे. जनवरी-फरवरी 1948 के संयुक्त राष्ट्र सत्र के बारे में इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने लिखा, “ जब सुरक्षा परिषद ने एजेंडा आइटम को ‘जम्मू और कश्मीर प्रश्न’ से बदलकर ‘भारत-पाकिस्तान प्रश्न’ कर दिया. तब भारत को एक महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक हार का सामना करना पड़ा ”
संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दे को ले जाने पर पंडित नेहरू को पछतावा
संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के दावों को अमेरिका और इंग्लैंड द्वारा मजबूती दी गई थी. क्योंकि सोवियत संघ के खिलाफ भारत की तुलना में पाकिस्तान उन्हें एक बेहतर सहयोगी लग रहा था. बाद में जम्मू कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने के फैसले को लेकर पंडित नेहरू को भी पछतावा हुआ. पाकिस्तान और अमेरिका की करीबी और दोनों के बीच एक सैन्य समझौते को देखकर 1954 के बाद पंडित नेहरू का रुख जनमत संग्रह के खिलाफ हो गया. हालांकि, इससे पहले ही संविधान निर्माण की प्रक्रिया के तहत 17 अक्टूबर, 1949 को अनुच्छेद 370 को संविधान में शामिल किया गया. जो संविधान के साथ 1950 में लागू हुआ. इसके तहत ही जम्मू-कश्मीर को भारत संघ में ‘विशेष दर्जा’ दिया गया था. 1954 में समझौते में एक और अनुच्छेद 35 ए जोड़ा गया. ऐतिहासिक तथ्य है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसके बारे में कहा था कि यह घिसते-घिसते खत्म हो जाएगा. आखिरकार पीएम मोदी के दूसरे कार्यकाल में पांच अगस्त, 2019 को इसे खत्म कर दिया गया.
साभार